Teacher’s Day / टीचर्स डे : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

टीचर्स डे  : डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय

imagesteachers%20day Teacher’s Day / टीचर्स डे : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

 

Table of Contents

Teacher’s Day : देश भर में हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस (Teachers day ) मनाया जाता है। इस दिन सभी छात्र अपने शिक्षकों के प्रति आभार व्यक्त करते हैंऔर उन्हें कई उपहार भी देते हैं। शिक्षक दिवस मुख्य रुप से देश के दूसरे राष्ट्रपति और एक महान शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर मनाया जाता है। राधाकृष्णन दर्शनशास्त्र के विद्वान थे. उन्होंने भारतीय संस्कृति, परंपरा और दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। 
 
teachers%203 Teacher’s Day / टीचर्स डे : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

शिक्षा ही एक मात्र ऐसा हथियार है तो समाज, देश व दुनिया को बदल सकता है, दुनिया का सबसे प्रभावशाली सेक्टर शिक्षण ही है। शिक्षा के माध्यम से आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर सकते हैl क्योंकि शिक्षक जीवन की हर मुश्किल को आसान बना देता है l

teachers%20day10 Teacher’s Day / टीचर्स डे : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

शिक्षक एक मित्र भी हो सकता है और घर का कोई सदस्य भी, हर वह व्यक्ति शिक्षक है जो हमें सही रास्ते पर चलना सिखाये l भारतवर्ष में सदियों से शिक्षक को भगवन से भी बढकर माना गया है l

teachers%20day9 Teacher’s Day / टीचर्स डे : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

प्राचीन कल से ही हमारे यहाँ गुरु शिष्य परंपरा का चलन रहा है पहले वैदिक समय में विद्या को गुरुकल में गुरुजनों के सानिध्य में अर्जित किया जाता था l

teachers%208 Teacher’s Day / टीचर्स डे : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

शिक्षक दिवस मुख्य रुप से देश के दूसरे राष्ट्रपति और एक महान शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर मनाया जाता है। राधाकृष्णन दर्शनशास्त्र के विद्वान थे. उन्होंने भारतीय संस्कृति, परंपरा और दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया था।
 

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी  जन्म एवं परिवार

डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेन्सी के चित्तूर जिले के तिरूत्तनी ग्राम के एक तेलुगुभाषी ब्राह्मण परिवार में 5 सितम्बर 1888 को हुआ था। तिरुत्तनी ग्राम चेन्नई से लगभग 84 कि॰ मी॰ की दूरी पर स्थित है और 1960 तक आंध्र प्रदेश में था और वर्तमान में तमिलनाडु के तिरुवल्लूर जिले में पड़ता है। उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है। 

राधाकृष्णन के पुरखे पहले कभी ‘सर्वेपल्ली’ नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। एक निर्धन किन्तु विद्वान ब्राह्मण की सन्तान थे। उनके पिता का नाम ‘सर्वपल्ली वीरासमियाह’ और माता का नाम ‘सीताम्मा‘ था। उनके पिता राजस्व विभाग में काम करते थे। उन पर बहुत बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। 

वीरास्वामी के पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इनमें दूसरा था। उनके पिता काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं हुआ।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन  का विद्यार्थी जीवन

राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। उन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे। यद्यपि उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें धार्मिक भावनाएँ भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य पढाई के लिये भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे।

इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिये। इसके लिये उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में उन्होंने स्वामी विवेकानन्द और अन्य महान विचारकों का अध्ययन किया। उन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने 1905 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली।

 इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने उन्हें छात्रवृत्ति भी दी। दर्शनशास्त्र में एम०ए० करने के पश्चात् 1918 में वे मैसूर महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। बाद में उसी कॉलेज में वे प्राध्यापक भी रहे। डॉ॰ राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गयी।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन  का  दाम्पत्य जीवन

राधाकृष्णन का विवाह  8 म‌ई 1903 को 14 वर्ष की आयु में  ‘सिवाकामू‘ नामक कन्या के साथ सम्पन्न हुआ । उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी। अतः तीन वर्ष बाद ही उनकी पत्नी ने उनके साथ रहना आरम्भ किया। यद्यपि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती थीं। 1907 में उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की।

 1908 में राधाकृष्णन दम्पति को सन्तान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई जिनका नाम उन्होंने सुमित्रा रखा। शादी के 6 वर्ष बाद ही 1909 में उन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा। उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिये बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। 1908 में उन्होंने एम० ए० की उपाधि प्राप्त करने के लिये एक शोध लेख भी लिखा। 

इस समय उनकी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। इससे शास्त्रों के प्रति उनकी ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही उन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन  द्वारा हिन्दू शास्त्रों का गहरा अध्ययन

शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक व्यक्ति पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों के भीतर काफी गहराई तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गये। 

लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉ॰ राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दू शास्त्रों का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉ॰ राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है? तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे।

 इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा सन्देश देती है।

भारतीय संस्कृति के बारे  में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन  के विचार

डॉ॰ राधाकृष्णन ने यह भली भाँति जान लिया था कि जीवन बहुत ही छोटा है परन्तु इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिये। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो अमीर ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी प्रकार का वर्ग भेद नहीं करती।

 सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण सन्तोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असन्तोष का निवास है। एक शान्त मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से; जो संसदों एवं दरबारों में सुनायी देती हैं। वस्तुत: इसी कारण डॉ॰ राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वे मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे।

 इसीलिए कहा गया है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इसी कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फँसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिये समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गये।

जीवन दर्शन के बारे  में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन  के विचार

डॉ॰ राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबन्धन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था- “मानव को एक होना चाहिए। 

मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति तभी सम्भव है जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शान्ति की स्थापना का प्रयत्न हो।” डॉ॰ राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। 

उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को भी देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे। इसलिये इनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप मे मनाते है.

 

अध्ययन के दौरान की उपलब्धियां 

1909 में 21 वर्ष की उम्र में डॉ॰ राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना प्रारम्भ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया अपितु स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों व्याख्याता के लिये यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करे। इसी कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। 

दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से अत्यन्त अभिभूत हुए। उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शनशास्त्र की कक्षाओं में पढ़ा दें। तब राधाकृष्ण ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिये, जिनसे वे शिक्षार्थी भी चकित रह गये। इसका कारण यह था कि उनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में दृष्टिकोण स्पष्ट था और व्याख्यान देते समय उन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था। 

1912 में डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की “मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व” शीर्षक से एक लघु पुस्तिका भी प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिये गये उनके व्याख्यानों का संग्रह था। इस पुस्तिका के द्वारा उनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि “प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिये उनके पास शब्दों का अतुल भण्डार तो है ही, उनकी स्मरण शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण है।”

डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन

डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की मानद उपाधियाँ

जब डॉ॰ राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया। 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाक़ात पण्डित जवाहर लाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये कलकत्ता आए हुए थे। यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु ‘मानचेस्टर विश्वविद्यालय’ द्वारा आमन्त्रित किया गया। इन्होंने मानचेस्टर एवं लन्दन में कई व्याख्यान दिये। इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों निम्नवत हैं:-

  • सन् 1931 से 36 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
  • ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।
  • कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
  • सन् 1939 से 48 तक काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय के चांसलर रहे।
  • 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्‍वविद्यालय के चांसलर रहे।
  • 1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का राजनितिक जीवन 

 
सर्वपल्ली राधाकृष्णन की यह प्रतिभा थी कि स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किये गये। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण प्रतिभा का उपयोग 14 – 15 अगस्त 1947 की रात्रि को उस समय किया जाये जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वे अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। क्योंकि उसके पश्चात ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।

 

डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के राजनयिक कार्य

सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा ही किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पण्डित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। 

पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह सन्देह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वे एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मन्त्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वे उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था।

 जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब भी वे नियमों के दायरों में नहीं बँधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।

डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति के रूप में 

1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किये गये। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। 

उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाये गये। बाद में पण्डित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिये काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं।

भारत रत्न डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन

यद्यपि उन्हें 1931 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा “सर” की उपाधि प्रदान की गयी थी लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उसका औचित्य डॉ॰ राधाकृष्णन के लिये समाप्त हो चुका था। 

जब वे उपराष्ट्रपति बन गये तो स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद जी ने 1954 में उन्हें उनकी महान दार्शनिक व शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।
 
आशा करता हूँ की आपको टीचर्स डे के बारे में और यह किस लिए मनाया जाता है पता चल गया होगा , आपको मेरे इस लेख की जानकारी कैसी लगी कृपया कमेंट बॉक्स में जरूर लिखे, कोई सुझाव हो तो अवश्य देl धन्यवाद

0 thoughts on “Teacher’s Day / टीचर्स डे : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन”

Leave a comment

Yoga for Students